प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में भाजपा की सोशल मीडिया मशीन आश्चर्यजनक उपलब्धियाँ हासिल करती रही है। कई सोशल नेटवर्किंग माध्यमों पर श्री मोदी अमेरिकी राष्ट्रपति बराक ओबामा के समकक्ष या आसपास हैं। पिछले लोकसभा चुनाव में उनकी टीम और पार्टी ने सोशल मीडिया का जिस दक्षता के साथ इस्तेमाल कर प्रचंड विजय दर्ज की वह शोधार्थियों के लिए अध्ययन का विषय है। सत्ता में आने के बाद भी ऑनलाइन माध्यमों पर श्री मोदी और उनकी सोशल मीडिया मशीन का दबदबा जारी है। उनके अमेरिका दौरे और बराक ओबामा के भारत दौरे की मिसालें देख लीजिए। लेकिन ऐसी पार्टी और ऐसे नेता दिल्ली के विधानसभा चुनाव में इतनी बुरी शिकस्त के शिकार कैसे हो गए? और अगर हो भी गए तो तमाम तरह के पैमानों और तकनीकों का इस्तेमाल करने वाली उनकी दक्ष आईटी टीम को दिल्ली के मूड का समय रहते पता कैसे नहीं चल सका? वास्तव में केजरीवाल और उनके स्वयंसेवकों की टोली जमीनी स्तर पर ही नहीं बल्कि सोशल मीडिया पर भी भारी सिद्ध हुई है। उसने सिद्ध किया है कि कोई भी कामयाबी स्थायी नहीं है। भारतीय जनता पार्टी ने यदि सोशल मीडिया के रुझानों को गंभीरता से लिया होता तो शायद वह दिल्ली में अपनी जीत सुनिश्चित मानकर नहीं चल रही होती। दिल्ली के चुनावों से जुड़े ट्वीट और सोशल मीडिया की टिप्पणियों में से 61 फीसदी में किसी न किसी तरह अरविंद केजरीवाल का जिक्र किया गया था। किरण बेदी का जिक्र 31 फीसदी टिप्पणियों में हुआ था। आम लोग, खासकर युवा वर्ग किसे अहमियत दे रहा है, इसे समझना ज्यादा मुश्किल नहीं था। भले ही सोशल मीडिया की पहुँच समाज के निचले तबके तक नहीं है लेकिन फिर भी वह काफी हद तक जनता के मूड को अभिव्यक्त करने लगा है। लगभग उसी तरह, जैसे जनमत सर्वेक्षण या एक्जिट पोल करते हैं, जिनमें सर्वे किए गए लोगों की संख्या कम होने के बावजूद भावी परिणाम का आकलन कर लिया जाता है। इंटरनेट पर डाले गए तमाम किस्म के कन्टेन्ट (लिंक, फोटो, वीडियो वगैरह) के मामले में भी केजरीवाल 59 फीसदी, किरण बेदी 33 फीसदी और कांग्रेस के अजय माकन 8 फीसदी पर रहे। सोशल मीडिया के तमाम मापदंडों का विश्लेषण करने के बाद सिम्प्लीफाई 360 ने निष्कर्ष निकाला कि सोशल मीडिया पर अरविंद केजरीवाल का कुल प्रभाव जहाँ 51 फीसदी था वहीं किरण बेदी का 38 और अजय माकन का 11 फीसदी रहा। एक संयोग देखिए कि तीनों दलों को मिले वोटों का प्रतिशत भी इन आंकड़ों के काफी करीब रहा है।
लोकसभा चुनाव में सोशल मीडिया पर भाजपा का दबदबा एकदम स्पष्ट था- खास तौर पर नियुक्त की गई सोशल मीडिया टीम के जरिए दनादन ट्वीट हो रहे थे, नरेंद्र मोदी की वर्चुअल सभाएँ हुई थीं, मोबाइल पर निरंतर संदेश आ रहे थे, भाजपा के यू-ट्यूब चैनल पर श्री मोदी की सभाओं के ताजातरीन वीडियो डाले जा रहे थे और कई वेबसाइटों के जरिए मीडिया तथा आम लोगों को सूचनाएँ मुहैया कराई जा रही थीं। ट्विटर और फेसबुक पर प्रशंसकों की संख्या लगातार बढ़ाने की मुहिम चल रही थी। क्या नहीं हो रहा था उन चुनावों में, जबकि आम आदमी पार्टी तब सोशल मीडिया पर बहुत बेतरतीब और बेदम प्रतीत हो रही थी। शायद दक्षता के अति-आत्मविश्वास में, या फिर शायद अरविंद केजरीवाल की 'भगोड़ी छवि' के कारण जनता की नाराजगी को कुछ ज्यादा ही गंभीर लेने के कारण इस बार भाजपा ने इस माध्यम को लोकसभा चुनावों जैसी अहमियत नहीं दी। दूसरी ओर आम आदमी पार्टी ने सोशल मीडिया पर आ रही टिप्पणियों को जाँचने और उनके जवाब देने के लिए खास तौर पर एक टीम को नियुक्त किया था। ट्विटर पर देहलीडिसाइड्स और आपस्वीप्स जैसे दर्जनों हैंडल बनाए गए। देहलीडिसाइड्स पर तो टिप्पणियों की रफ्तार 160 ट्वीट प्रति मिनट को छू गई। चुनाव के दौरान यह दोनों हैंडल ट्विटर पर चल रहे रुझानों के शीर्ष पर बने रहे।
फेसबुक पर भी भाजपा की तुलना में आम आदमी पार्टी की उपस्थिति ज्यादा मजबूत रही। इसे निरंतर अपडेट किया जाता रहा और जनसभाओं, खबरों, बयानों, प्रतिक्रियाओं, सेल्फियों वगैरह की रौनक गुलजार होती रही। अरविंद केजरीवाल के फॉलोवर लगातार 'रियल टाइम' सूचनाएँ प्राप्त कर रहे थे। आम आदमी पार्टी ने इस बार रेडियो का बेहतरीन लाभ उठाया। कम बजट वाली पार्टी के लिए प्रिंट मीडिया और टेलीविजन की तुलना में प्रचार का यह सस्ता माध्यम था। रेडियो पर न सिर्फ अरविंद केजरीवाल के संदेश आते रहे, पार्टी के नारे और सदेश गूंजते रहे बल्कि कुछ अभियान इस तरह चलाए गए जिनमें ऐसा लगा कि दिल्ली में जिससे बात कीजिए वह यही कह रहा है कि पाँच साल केजरीवाल। विज्ञापन कुछ इस तरह शुरू होते थे कि एक रेडियो जॉकी कुछ लोगों से बात करने पहुँचता है। वह उनसे पूछता है कि इस बार वोट किसे दे रहे हैं। जवाब मिलता था- केजरीवाल को। कारण? लोग तरह-तरह के कारण बताते थे। इनमें से कुछ का कहना था कि वे पारंपरिक रूप से भाजपा या कांग्रेस के साथ थे लेकिन इस बार पाला बदल रहे हैं क्योंकि उन्हें केजरीवाल पर ज्यादा भरोसा है। था तो यह विज्ञापन, लेकिन लगता ऐसे था जैसे एफएम चैनल ने वाकई लोगों के बीच जाकर उनका मंतव्य जाना है। कहना न होगा कि दांव सही पड़ा। कई चैनलों पर विशाल शेखर का कंपोज किया पाँच साल केजरीवाल गाना भी चला, जो वाकई गुनगुनाने लायक था। भाजपा के पास इसका कोई तोड़ नहीं दिखाई दिया।
और यू-ट्यूब का जिक्र किए बिना बात अधूरी रह जाएगी, जहाँ 'पाँच साल केजरीवाल' का वीडियो खूब चला। व्हाट्सऐप पर भी इसे हजारों लोगों ने साझा किया। आम आदमी पार्टी की अहम गतिविधियों, अरविंद केजरीवाल के इंटरव्यू आदि के वीडियो की यू-ट्यूब पर भरमार हो गई है। दिल्ली के चुनावों ने एक बार फिर माहौल बनाने में सोशल मीडिया की अहमियत सिद्ध की है। उन्होंने दिखाया है कि एक बार इसमें दक्षता हासिल कर लेने का मतलब यह नहीं है कि हमेशा के लिए फैसला हो गया। लगातार सीखना, नए तत्वों को अपनाना, रुझानों पर नजर रखना, निरंतर सक्रिय रहना और अपने अभियान को रुचिकर तथा प्रभावशाली बनाए रखना सोशल मीडिया पर राजनैतिक दलों की कामयाबी की कुंजी है। इनोवेशन, नएपन और इंटरएक्टिविटी में जरा भी ढीले पड़े तो प्रतिद्वंद्वी हावी हो जाएगा, फिर भले वह दिल्ली का चुनाव हो या कोई और।