अमेरिकी राष्ट्रपति बराक ओबामा का भारत दौरा भारत के लिए प्रतिष्ठा का सवाल और अमेरिका के लिए इस देश के साथ गहरे संबंध बनाने का मजबूत आधार है। शायद पहली बार अमेरिका ने भारत के साथ गहरे रिश्तों की अपनी इच्छा को इस तरह सार्वजनिक रूप से प्रकट किया है। अभी कुछ महीने पहले ही देवयानी खोबरागड़े और दूतावास जासूसी कांड के चलते दोनों के रिश्ते लंबे तनाव के दौर से गुजरे हैं। खुद प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के साथ अमेरिका के संबंधों में आपसी विश्वास का अभाव रहा है। ऐसे में पहले नरेंद्र मोदी के यादगार अमेरिका दौरे और अब अमेरिकी राष्ट्रपति की ऐतिहासिक भारत यात्रा संदेह और अविश्वास से आगे बढ़कर मित्रता और भरोसे की दिशा में बढ़ने की मजबूत बुनियाद बन सकते हैं। हमारे लिए यह अपनी वैश्विक अहमियत को महसूस करने का मौका भी है और अपने बदलते दर्जे का परिपक्वतापूर्ण उपयोग करने का अवसर भी। तसल्ली की बात है कि आर्थिक, राजनैतिक, सैनिक झंझावातों को झेलते हुए एक विकासशील देश आज इस स्थिति में पहुँच रहा है जब दुनिया का सबसे शक्तिशाली राष्ट्र और सबसे पुराना गणतंत्र स्वीकार करता है कि गणतंत्र दिवस की परेड में अमेरिकी राष्ट्रपति का बतौर मुख्य अतिथि शामिल होना बेहद सम्मान की बात है। लेकिन यह दौरा सिर्फ हमारे लाभ के लिए नहीं है और इसके संभव तथा सफल होने में अमेरिकी राष्ट्रपति की भूमिका कहीं अधिक महत्वपूर्ण है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का निमंत्रण स्वीकार कर ओबामा भारत की जनता के बीच यह संदेश भेजने में सफल रहे हैं कि अमेरिका भारत को औपचारिक मित्र से अधिक महत्व देने के लिए तैयार है।
शायद ही किसी अमेरिकी राष्ट्रपति ने किसी मित्र राष्ट्र के प्रति इस तरह का सौहार्द और विश्वास दिखाया हो, जब वह अपनी सुरक्षा के मुद्दे और प्रोटोकॉल को अनदेखा करते हुए एक विकासशील देश की राजधानी में कई घंटे तक खुले में बैठने के लिए तैयार हुआ हो। माना कि हमारी दृष्टि में श्री ओबामा की सुरक्षा को किसी तरह की चुनौती उपस्थित होने के आसार नहीं हैं लेकिन अमेरिका के दृष्टिकोण से सोचिए तो अमेरिकी राष्ट्रपति ने बहुत बड़ा जोखिम लिया है। माना कि हम अपनी सुरक्षा में किसी तरह की कोताही नहीं बरतते और आज तक गणतंत्र दिवस या स्वतंत्रता दिवस के कार्यक्रमों को किसी तरह की आतंकवादी चुनौती पेश नहीं होने दी गई है, लेकिन अमेरिका के लिए तो हम भी तीसरी दुनिया के एक देश मात्र हैं। और तीसरी दुनिया के देशों की सुरक्षा व्यवस्था पूरी तरह अभेद्य होगी, कम से कम व्हाइट हाउस और पेंटागन के स्तर पर तो इस तरह की धारणा की उम्मीद दिखाई नहीं देती।
फिर भी बराक ओबामा ने निमंत्रण तुरंत स्वीकार किया और गणतंत्र दिवस के पारंपरिक कार्यक्रम में कोई विशेष बदलाव करने का आग्रह नहीं किया, इसकी अहमियत को नजरंदाज नहीं किया जा सकता। यूँ जब मामला सुरक्षा से जुड़ा हो तो मेजबान को भी लचीलापन दिखाने की जरूरत है। विश्व के सबसे शक्तिशाली और सबसे महत्वपूर्ण व्यक्ति की सुरक्षा को हमारे लिए भी हल्के में लेना संभव नहीं है। ऐसे में, आवश्यकता हो तो हमारी परंपराओं में आवश्यक परिमार्जन करने में कोई हिचक नहीं होनी चाहिए। स्थापित तौर-तरीकों के पालन पर बहुत अधिक अड़ने की जरूरत नहीं है। आखिरकार परंपराएँ सिर्फ पालन करने के लिए ही नहीं हैं, बनाने के लिए भी हैं। राष्ट्रपति ओबामा की सुरक्षा और भारत में उनकी यात्रा को यादगार तथा सुखद बनाना हमारा दायित्व है। ओबामा सिर्फ धन्यवाद के पात्र नहीं हैं। हमें उनकी भावना का उन्हीं के अंदाज में जवाब देने की जरूरत है।
बराक ओबामा का भारत यात्रा के लिए सहमत होना बहुत असामान्य या आश्चर्य की बात नहीं है। लेकिन इस दौरे में स्थिति अलग है। यह कोई सामान्य दौरा नहीं है। न सिर्फ इसका फैसला आनन-फानन में हुआ बल्कि दोनों देशों के स्तर पर सारी तैयारियाँ भी तेजी से संपन्न हुई हैं। अमेरिकी संसद में अपनी पार्टी के कमजोर होने के बाद ओबामा अब उतने ताकतवर राष्ट्रपति नहीं रह गए हैं जैसे कुछ महीने पहले हुआ करते थे। लेकिन वे अमेरिका का प्रतिनिधित्व करते हैं। वे हमारी चिंताओं और आकांक्षाओं पर कदम उठाने में सक्षम हैं। उनकी भारत यात्रा के ठीक पहले अमेरिका से आए बयान भी इस बात की निशानदेही करते हैं कि अमेरिका को भारत की चिंताओं का ख्याल है। खासकर पाकिस्तान के संदर्भ में खुद ओबामा की स्पष्ट चेतावनियाँ अमेरिकी रुख में सुखद बदलाव की द्योतक हैं। उन्होंने पाकिस्तान में आतंकवादियों के बेरोकटोक घूमने फिरने का जिक्र किया है और कहा है कि आतंकवादियों के अलग-अलग समूहों के बीच फर्क करना खुद पाकिस्तान के हित में नहीं है। मुंबई पर हुए आतंकवादी हमले का भी उन्होंने जिक्र किया है और कहा है कि इस मामले के अपराधियों पर कानून का शिकंजा कसा जाना जरूरी है। भारत को आतंकवाद के संदर्भ में अमेरिकी चिंताओं, बेबाकियों और पाकिस्तान की भूमिका के प्रति उसकी बढ़ती समझबूझ का लाभ उठाने से नहीं चूकना चाहिए। अमेरिकी राष्ट्रपति के भारत प्रवास के दौरान पाकिस्तान आधारित आतंकवाद का मुद्दा दोनों देशों के आपसी संबंधों, दोतरफा व्यापार, सैन्य संबंधों और अंतरराष्ट्रीय राजनीति के संतुलनकारी पहलुओं पर विचार से कम महत्वपूर्ण नहीं होना चाहिए। आखिरकार भारत की आर्थिक समृद्धि में आतंकवाद एक बड़ी बाधा है।
पेशावर के स्कूल में हुई हृदय-विदारक आतंकवादी घटना के बाद कुछ दिन पाकिस्तान का रुख आतंकवाद के मुद्दे पर भारत के साथ हमदर्दी का प्रतीत हुआ था। लेकिन धीरे-धीरे वहाँ के नेताओं का रुख बदलना शुरू हुआ है। जहाँ पहले यह महसूस हो रहा था कि पाकिस्तान सभी किस्म के आतंकवादियों के खिलाफ निर्णायक लड़ाई छेड़ने के लिए प्रतिबद्ध हो गया है, वहीं कुछ पाकिस्तानी नेताओं, मंत्रियों और वहाँ के राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार सरताज अजीज के बयानों ने भारत को निराश किया है, जिन्होंने शक जताया है कि तहरीके तालिबान पाकिस्तान के उभार के पीछे खुद भारत का हाथ हो सकता है। हालाँकि पाकिस्तान अपने इस संदेह को किसी प्रमाण के जरिए स्थापित करने में नाकाम रहा है और किसी भी अंतरराष्ट्रीय शक्ति ने भी इस संदेह को अहमियत नहीं दी है। पाकिस्तानियों ने अपना संदेह जताते हुए इस तथ्य को भी भुला दिया कि तालिबान ने कुछ महीने पहले कहा था कि अगर पाकिस्तान भारत के खिलाफ जंग छेड़ता है तो उसके लड़ाके पाकिस्तानी सेना के कंधे से कंधा मिलाते हुए सीमा पर उसका साथ देने के लिए खड़े होंगे। पूर्व राष्ट्रपति परवेज मुशर्रफ, जिन्हें जनरल जिया, बेनजीर भुट्टो के बाद पाकिस्तान की आतंकवाद को बढ़ावा देने की नीति का वास्तुकार माना जाता है, ने भी आशंका जताई थी कि बलूचिस्तान और खैबर पख्तूनख्वाहा में आतंकवाद के उभार में भारतीय खुफिया एजेंसियों की भूमिका हो सकती है। भारत को चाहिए कि वह अमेरिकी राष्ट्रपति की यात्रा और पाकिस्तान आधारित आतंकवाद के प्रति उनके स्पष्ट रुख का लाभ उठाते हुए पाकिस्तान को अपने नजरिए पर पुनर्विचार के लिए तैयार करवाए। इसकी संभावना नवाज शरीफ के दौर में दूसरे नेताओं की सरकारों की तुलना में अपेक्षाकृत अधिक हो सकती है क्योंकि नवाज शरीफ धर्मांध व्यक्ति के रूप में नहीं जाने जाते। उनकी छवि एक संजीदा और संतुलित इंसान की है जिसके साथ बात की जा सकती है।
दुनिया की किसी भी दूसरी शक्ति की तुलना में अमेरिका के साथ भारत की समानता अधिक है। दोनों ही देशों में लोकतंत्र निर्विवाद रूप से स्थापित हो चुका है। दोनों ही नागरिक स्वतंत्रता में यकीन रखते हैं, दोनों ही समावेशी प्रकृति के देश हैं, दोनों स्थानों पर अनेकता में एकता के दर्शन होते हैं और दोनों ही कुछ एक सी सामाजिक समस्याओं से ग्रस्त रहे हैं। भारत के नागरिक बड़ी संख्या में अमेरिका जाकर बसे हैं और उसकी सेवा में लगे हैं। वे दोनों के बीच विश्वास कायम करने वाली मजबूत कड़ी हैं। आर्थिक, राजनैतिक और सैन्य संदर्भों में भारत उस संतुलनकारी स्थिति में है जैसे देश की तलाश अमेरिका को लंबे समय से है। हम एक-दूसरे को लाभ पहुँचाने की स्थिति में हैं और दोनों को ही एक दूसरे की जरूरत है। अमेरिका को बाजार चाहिए और हमें निवेश। ऐसे में अमेरिकी राष्ट्रपति का भारत दौरा हमारे रिश्तों पर स्थायी मित्रता की मोहर लगा सकता है। यह दौरा दोनों देशों को भावनात्मक स्तर पर करीब लाया है, इसमें संदेह नहीं। अब आपसी संबंधों को व्यापक भागीदारी का रूप देने की जरूरत है।