महात्मा गांधी के बाद संभवतः पहली बार किसी बड़ी राजनैतिक शख्सियत ने हम हिंदुस्तानियों को स्वच्छता के लिए प्रेरित किया है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने लाल किले की प्राचीर से देश को संबोधित करते हुए अपने व्यापक राजनैतिक, आर्थिक, सामाजिक दृष्टिकोण का ऐलान तो किया ही, कुछ बुनियादी समस्याओं की भी नब्ज पकड़ने की कोशिश की। खास तौर पर हम भारतीयों की अपने आसपास गंदगी फैलाने की प्रवृत्ति का खास तौर पर जिक्र किया। घरों और विद्यालयों में शौचालयों के अभाव को भी उन्होंने अहमियत दी। उनका सवाल था- यदि सवा करोड़ भारतीय ठान लें कि हम अपने देश को गंदा नहीं करेंगे और न ही गंदा होने देंगे तो कोई कैसे गंदगी फैला सकता है?प्रधानमंत्री के संदेश को सकारात्मक रूप में देखे जाने की जरूरत है। हमारी बहुत सी बुरी आदतें दशकों, बल्कि सदियों के व्यवहार का नतीजा हैं। ये हमारे व्यक्तित्व और व्यवहार का इतना स्वाभाविक हिस्सा बन चुकी हैं कि हमें अहसास तक नहीं होता कि बस से बाहर कूड़ा फेंकते समय, सड़क के किनारे पर हल्के होते समय या फिर दीवारों पर पान की पीक थूकते समय हम कुछ गलत कर रहे हैं। इस प्रवृत्ति और आदत से मुक्ति पाने के लिए आम भारतीय को प्रेरित करना आसान नहीं है। अब समय आ गया है कि इस नकारात्मक प्रवृत्ति को एक राष्ट्रीय खामी के रूप में देखा जाए और इस पर सामूहिक, राष्ट्रव्यापी प्रहार किया जाए। प्रधानमंत्री ने ठीक कहा है कि महात्मा गांधी की 175वीं जयंती आते-आते, पाँच वर्ष की अवधि में भारत स्वच्छ राष्ट्र में तब्दील हो जाए तो राष्ट्रपिता को उससे अच्छी कोई अन्य श्रद्धांजलि नहीं हो सकती। स्वच्छता को गांधीजी जितना महत्व देते थे, शायद ही भारत जैसी परिस्थितियों वाले किसी देश में किसी अन्य नेता ने दिया होगा। कारण? अनगिनत महामारियों के शिकार रहे इस साधनविहीन राष्ट्र को संभवतः अपने व्यवहार में सावधानी की औरों से अधिक जरूरत है।
श्री मोदी ने लगभग उसी अंदाज में हमें झकझोरने की कोशिश की है, जैसे कोई अध्यापक अपने छात्रों को करता है। उन्होंने हमें स्वच्छता और स्वास्थ्यप्रद परिस्थितियों (हाईजीन) के साथ-साथ उन सामाजिक दायित्वों की भी याद दिलाई है, जिनका हम अपने दैनिक जीवन में न जाने कितने बार उल्लंघन करते हैं। इन मुद्दों को हमने कभी अहमियत नहीं दी। यहाँ तक कि अस्पतालों, सड़कों के किनारों, दीवारों, पुरातात्विक स्थलों आदि पर स्पष्ट लगे नोटिसों के बावजूद हम वहाँ बेरोकटोक, बेपरवाह गंदगी फैलाते रहे हैं। जब सामान्य संदेशों का प्रभाव न हो तो फिर सर्वोच्च स्तर पर, आमने-सामने संदेश देना जरूरी हो जाता है, जहाँ प्रधानमंत्री सीधे इस देश के नागरिकों को संबोधित कर रहे हों। आर्थिक और राजनैतिक सुधार अपनी जगह ठीक हैं, लेकिन इस देश में सामाजिक सुधारों का भी लंबा सिलसिला चलाए जाने की जरूरत है।
सार्वजनिक शिष्टाचार में हम कहाँ
जरा सोचिए, क्या हम भारतीय साफ−सफाई, हाईजीन, समय की पाबंदी, सार्वजनिक शिष्टाचार आदि में बहुत पीछे नहीं हैं? हम भारतीय अपने दैनिक जीवन और व्यवहार में इस तरह के मुद्दों को वैसा महत्व देते ही नहीं, जैसा कि पश्चिमी लोग देते हैं। लेकिन इसे हमारी उदारता माना जाना चाहिए या अनभिज्ञता? हाईजीन के प्रति अनभिज्ञता, सार्वजनिक शिष्टाचार (मैनर्स) संबंधी कमियों, डेडलाइनों के प्रति बेपरवाही, सड़क पर अराजकता, नियमों का पालन करने में अनिच्छा, कामकाज में ढिलाई, 'चलता है' का नजरिया और ऐसी ही दर्जनों कमियां हममें से ज्यादातर लोगों की आदतों में शुमार हैं। दुनिया भर में इन कमियों के लिए हमारी खूब खिल्ली उड़ाई जाती है। एक राष्ट्र के तौर पर हमें इन वैश्विक आलोचनाओं को भूलना नहीं चाहिए।
अपने बेपरवाह तौर−तरीके भले ही हमें कितने भी सुविधाजनक क्यों न लगें, ये हमारे पिछड़ेपन की निशानियां भर हैं। विकसित भारत का निर्माण महज आर्थिक, सैनिक, वैज्ञानिक, तकनीकी, औद्योगिक और पेशेवर तरक्की से संभव नहीं है। हमारा समाज इस विकास का सबसे महत्वपूर्ण पहलू है। दुर्भाग्य से अर्थव्यवस्था के प्रभावशाली आंकड़ों के बावजूद सामाजिक आचरण के स्तर पर हम बहुत आगे नहीं बढ़े हैं। उस मोर्चे पर हमें तीसरी दुनिया के देशों− पाकिस्तान, बांग्लादेश, मालदीव, मिस्र, ईरान, नाईजीरिया आदि की श्रेणी में ही गिना जाता है। अपने सामाजिक जनजीवन में मौजूद कमियों और वर्जनाओं से मुक्ति पाए बिना हम आधुनिक भारत का निर्माण नहीं कर सकते। आइए, खुद अपने और अपने आसपास से पिछड़ेपन की उन तमाम निशानियों को निकाल फेंकें जो हमारे समाज की निराशाजनक अंतरराष्ट्रीय छवि के लिए जिम्मेदार हैं।
मुझे यह कहने के लिए माफ कीजिए कि हममें से ज्यादातर लोगों को स्वच्छता (हाईजीन) और सार्वजनिक शिष्टाचार (पब्लिक एटीकेट) के सही मायने नहीं मालूम। इसका अहसास तब तक नहीं होता, जब तक कि हम किसी विकसित राष्ट्र को न देखें। भारत में तो हममें से ज्यादातर लोग एक जैसे ही हैं! विदेशों पर एक नजर डालने की जरूरत है। हवाई अड्डों से लेकर सड़कों तक पर धूल और गंदगी का नामो−निशान तक नहीं। सड़कों पर थूकने, कूड़ा फेंकने, सड़कों के किनारे पेशाब करने, पार्कों में गंदगी फैलाने, सांस की बदबू और पसीने की गंध का ख्याल न करने, इमारतों पर पान−गुटके की चित्रकारी जैसी चीजें विकसित देशों में कहीं दिखाई नहीं देती। सड़क किनारे खुले में बिकते खाद्य पदार्थ, सार्वजनिक स्थानों पर खांसते−छींकते−डकारते और धूम्रपान करते लोग, ट्रेनों, बसों और अस्पतालों तक में जोर−जोर से बातें करते मोबाइलधारी और आम लोग, महिलाओं को लगातार घूरते और उनके लिए आरक्षित सीटों पर मजे से बैठे ढीठ इंसान भी भारत या तीसरी दुनिया के देशों में ही बहुतायत से दिखते हैं। ऐसा नहीं कि विकसित देशों में कोई सामाजिक कमियां नहीं हैं, लेकिन सवाल कमियां गिनाने का नहीं अपने देश और सामाजिक जीवन को बेहतर बनाने का है।
पिछड़ेपन की निशानियाँ
बातें और भी बहुत सी हैं। मिसाल के तौर पर हमारी 'लेटलतीफ' की छवि। क्या एक बढ़ते राष्ट्र के नाते यह चिंताजनक नहीं? जिन मियादों को हमने ही तय किया, उन्हें भी हम पूरा नहीं कर पाते और इसके लिए किसी तरह का अपराध−बोध भी महसूस नहीं करते। इसके लिए हम किसी प्रशंसा या गौरव के पात्र नहीं हैं। देरी के बहाने तलाशने की बजाए हमें प्रोफेशनल बनना पड़ेगा। यह सुनिश्चित करना होगा कि चाहे कुछ भी हो जाए, हर काम सही समय पर पूरा किया जाएगा। 'चलता है' का तरीका अब नहीं चलेगा।
पानी की सफाई का मुद्दा देखिए। टेलीविजन, रेडियो और अखबारों में धुआंधार प्रचार होने के बावजूद लोग अपने घरों में जमा पानी तक नहीं हटाते। डेंगू से लेकर चिकनगुनिया तक, ड्रॉप्सी से लेकर स्वाइन फ्लू तक और सार्स से लेकर प्लेग तक कितनी ही महामारियां हमारे यहां वार्षिक आधार पर होती हैं क्योंकि हम सफाई सुनिश्चित नहीं कर सकते।
बदलाव जरूरी है, मगर सिर्फ हाईजीन के मामले में ही नहीं, सिर्फ साफ-सफाई के मामले में नहीं। लाइनों में लगना हमें पसंद नहीं, सड़क पर लेन में चलना या लाल बत्ती का ख्याल रखना हमें रुचता नहीं। राह चलते भिखारियों की भीड़ हमें परेशान नहीं करती। खेल देखने के लिए टिकट खरीदने की बजाए पास का जुगाड़ करते हैं और अपने बच्चों की उम्र के श्रमिकों से काम करवाते हैं। हर बारिश में कितने लोग बिजली के तार जमीन पर गिरने से मर जाते हैं इसकी न हम नागरिकों को परवाह है और न अधिकारियों को। हैंडपंपों के खुले गड्ढों से लेकर खुले मेन होल तक में कितने बच्चे और बड़े गिरते और मरते हैं इसे हम टेलीविजन और अखबारों में देखकर अफसोस जता देते हैं मगर करते कुछ नहीं। कुछ दिन बाद फिर ऐसी घटना होती है और उसके बाद फिर। प्रिय पाठक, ऐसा जागरूक और विकसित समाजों में अमूमन नहीं होता। अरसे बाद किसी ने हमें झटका देकर याद दिलाया है कि हमें अपना घर ठीक करने की जरूरत है।