पिछ्ले कई दिनों से मैं यह बतकही/कहा-सुनी देख रहा हूं!
’छोटी ई’ और ’ बड़ी ई’ आपस में लगातार एक-दूसरे से बतिया/बहसिया रही हैं। तर्क-वितर्क कर रही हैं। लगी पड़ी हैं एक-दूसरे को औकात दिखाने पर।
छोटी ई का कहना है कि वर्णमाला में पहले आती है इसलिये वो बड़ी है। बड़ी ई कहती है अगर वो छोटी होती तो उसको बड़ी ई क्यों कहते!
दोनों में से किसी के पास हाईस्कूल का सर्टिफ़िकेट तो है नहीं कि बड़े-छोटे का मामला तय हो सके। आपस में जुड़वां मानने को दोनों तैयार नहीं! हर ई चाहती है उसको ही बड़ा माना जाये।
इस बीच तमाम अक्षर आते जा रहे हैं! छोटी ई और बड़ी ई मिलकर या अकेले जैसी मांग हो उसके अनुसार उनकी सेवा करती जा रही हैं। सेवाकार्य पूरा करते ही फ़िर लड़ने लगती- जैसे कि क्रिकेट खिलाड़ी गेंद फ़ील्ड करके च्युंगम चबाने लगाते हैं।
सेवाकार्य का नमूना भी देखना चाहते हैं आप! लीजिये- देख लीजिये।
देखिये इधर से एक ह आया, एक द आया और आधा न भी दिखा। छोटी ई और बड़ी ई ने उनको देखा और आंखों ही आंखों में इशारा किया। छोटी ई ह के बायें लग गयी , बड़ी ई द की दायीं ओर। ह को हि और द को दी बना दिया। आधे न को दोनों के बीच धर दिया जैसे मोटर साइकिल में मियां-बीबी के बीच बच्चा एडजस्ट हो जाता है। सबके सहयोग से हिन्दी शब्द बन गया और चल दिया।
फ़िर दोनों ने देखा कि एक ब , द के साथ टहल रहा है। पास आकर दोनों बद हो गये थे। पहले तो छोटी ई और बड़ी ई ने उनको देखकर मुंह बनाया लेकिन फ़िर न जाने क्या सोचकर दोनों को पास बुलाया। छोटी ई ने ब के ऊपर और बड़ी ई ने द के ऊपर अपनी छतरियां तान दी और बगल से एक बिंदी उठाकर ब के ऊपर लगा दी। आवारा, निठल्ला से फ़िरते बद का कायाकल्प हो गया! बुराई के गैंग में टहलने वाला बद, बिंदी बनकर पारिवारिक हो गया और एक सुहागन के माथे पर दमकने लगा। बद से बिंदी होने में उसका लिंग परिवर्तन हो गया लेकिन इससे शब्द समुदाय में कोई हलचल नहीं हुई। सबने उसे नये रूप में सहर्ष स्वीकार लिया।
इससे लगा कि शब्द समुदाय में लिंग भेद के आधार पर व्यवहार भेद नहीं होता।
उधर से द ल के साथ दिखा। दोनों को लगा कि अगर ये ऐसे ही घूमते रहे तो या तो दल वाली सारी खुराफ़ातें अंजाम देंगे। हुल्लड़ मचायेंगे। भभ्भड़ करेंगे! बड़ी ई ने छोटी ई को इशारा किया! छोटी ई ने धीरे से द के ऊपर अपना छाता तान दिया। दल , दिल बनकर धड़कने लगा। दिल की धड़कन देखकर बड़ी ई इत्ती बाबली हो गयी कि एक और दूसरा दल दिखा तो उसके द के साथ सट ली। दल को दील बना दिया। किसी ने टोंका -अरे मुई क्या करती है! कोई निठल्ला वैयाकरण देखेगा तो टोंकेगा। कहेगा दील सही नहीं हैं , इसे दिल बनाओ।
बड़ी ई इससे बेखबर द के साथ लगी रही। कहने लगी जब कोई टोंकेगा तब देखा जायेगा। अभी तो मेरा दिल है कि मानता नहीं।
एक और दल इतना क्यूट सा दिखा कि बड़ी ई और छोटी ई दोनों का एक साथ उसके साथ जुड़ने का मन हो आया। दोनों ने मिलकर दल को दिली बना दिया। दिली के संग के लिये पहले तो इच्छा को बुलाया! फ़िर उनको लगा कि कोई हिन्दी ने नाम पर नाक और उर्दू के नाम पर भौं न सिकोड़े इसलिये तमन्ना को साथ लेकर मस्ती करने लगीं। दल जैसा हुड़दंगिया सा लगने वाला शब्द छोटी ई और बड़ी ई के संसर्ग में आकर पहले तो दिली बना और उसई के चलते इच्छा और तमन्ना के साथ जोड़ी बनाकर महीन भावनाओं की अभिव्यक्ति का काम पाकर ऐश करने लगा!
कई जगह छोटी ई का काम बड़ी ई ने किया। कई जगह बड़ी ई काम छोटी ई ने किया। दिल की जगह दील वाली बात तो आपको बता ही चुके। बहुत जगह ऐसा हुआ कि फ़िर की जगह फ़ीर हो गया, हीर की जगह हिर हो गया (रांझा गया काम से! खोजता फ़िर रहा है हीर को! ) , दिन की जगह दीन पता नही कित्ती जगह ऐसा हुआ। अनगिनत किस्से! कभी छोटी ई किसी के साथ टहलने गयी तो बड़ी ई ने उसका काम संभाल लिया , जब बड़ी ई कहीं गई तो छोटी ने उसका भी संभाल लिया।
एक दिन तो मजा आ गया। कोई शब्द बन-ठन के आया था छोटी ई और बड़ी ई की सेवायें पाने के लिये। बना-ठना तो था ही। जित्ता बना-ठना था उससे ज्यादा अकड़ रहा था। ऐसे जैसे कहीं से फ़्री का कलफ़ लगवा के आया हो! उसको देखते ही दोनों ई को शरारत सूझी। बिना उसको कुछ बताये छोटी की जगह बड़ी लग गयी, बड़ी की जगह छोटी लग ली। मात्रा-सेवा करने के बाद उससे कहा – जाइये आपकी यात्रा शुभ हो। चलने से पहले शब्द ने शीशे में अपनी धज देखी तो हत्थे से उखड़ गया। बोला मेरा सारा हुलिया बिगाड़ दिया। दिल्ली की जगह मुझे दील्लि बना दिया। मुझे ऐरा-गैरा समझ लिया है। दोनों को पकड़ कर लोक सभा में पूरे दिन की कार्यवाही न सुनवाई तो मेरा नाम भी दिल्ली नहीं।
लेकिन दोनों ई तो मिलकर उससे दिल्लगी करती रहीं। कहा कि इत्ते बार जाने कित्ते लोगों ने तुम्हारे नाम वाले शहर को उजाड़ा तब तुम्हारा नाम वाला शहर तो कुछ कर नहीं पाया। तू आया बड़ा नखरे दिखाने वाला। तेरे जैसे भतेरे देखे हैं। दुकान से ज्यादा नखरे साइनबोर्ड के।
लेकिन शब्द चूंकि राजधानी से जुड़ा था इसलिये उसकी अकड़ खतम ही न हो पा रही थी। बार-बार देख लेने की धमकी दिये जा रहा था। बोला तुम लोगों को जरा सा भी सऊर नहीं! पता भी नहीं किधर लगना है ,कैसे लगना है! बिना देखे लग लीं! कौन है तुम्हारा मालिक बुलाओ मैं अभी शिकायत करूंगा। ऐसी खराब सेवा देखकर मूड ऑफ़ हो गया मेरा तो। शताब्दी का समय हो रहा है! जल्दी बुलाओ अपने शब्द मैनेजर को।
इसके बाद पता नहीं क्या हुआ। किससे क्या बात हुई कुछ पता नहीं लेकिन जो जबाब पता चला वो शायद कुछ इस तरह से था कि जब खुद अल्ला-ताला भगवान सबसे जो कि सबसे बड़े कारसाज हैं इत्ते खराब ऐढ़ें-बैढे आईटम बना के भेज देते हैं धरती पर तो आम लोगों के उत्पादन पर हल्ला मचाने से क्या होगा। जब भगवान के कारखाने के क्वालिटी कन्ट्रोल इत्ता चौपट है कि खंचियन लंग्ड़े/लूले, अंधे/काने तो खैर छोड़ ही देव ,दिमागी रूप से एक से एक पैदल , तुर्रम खां . लम्पट/लफ़ंदर टाइप आइटम टेस्टेड/ ओके होकर धरती पर सप्लाई हो जाते हैं कि लगता है कि वहां भी मेड इन चाइना वाले आइटम धड़ल्ले से चलते हैं । जब सर्वशक्तिमान और सर्वगुणसम्पन्न के यहां उत्पादन की गुणवत्ता के हाल हैं तो धरती पर बनने वाले शब्द की क्या कही जाये!
शब्द निर्माण के काम से फ़ुरसत पाते ही छोटी ई और बड़ी ई फ़िर से छोटे-बड़े की बात तय करने के लिये चहकते हुये लड़ने लगीं। अचानक बड़ी ई ने देखा कि बाकी सारे अक्षर उनको लड़ते-झगड़ते देख रहे हैं। सब मुस्करा रहे हैं। घूर रहे हैं। छोटी ई ने जब बड़ी ई को दूसरे अक्षरों को ताकते देखा तो पहले तो उसे लगा कि शायद उसका किसी से कांटा भिड़ गया या फ़िर उसका फ़िर किसी पर दिल आ गया। लेकिन जब उसने बड़ी ई को कोई हरकत न करते देखा तो वह पास जाकर उसको हिलाकर बोली- ये बड़ी ई किधर खो गयी? क्या सोचने लगी? अच्छा परेशान मत हो मैंने मान लिया कि तू ही बड़ी ई है। चल अब खुश हो जा! हंस दे। चल जल्दी से हंस!
लेकिन बड़ी ई चुपचाप लगातार बाकियों को घूरती रही। कुछ बोली नहीं। छोटी ई उसे घसीट कर अलग ले गयी और उससे पूछा -तू ऐसे चुप क्यों है? मैंने आज तक कभी उसे इस तरह चुप नहीं देखा। मेरी बात इत्ती बुरी लग गयी क्या?
बड़ी ई बोली नहीं मेरी सहेली! तेरी बात का क्या बुरा मानता। लेकिन आज मैंने यह ध्यान दिया कि सारी वर्णमाला में एक मेरे , तेरे और ञ के अलावा और कोई स्त्रीलिंग शब्द ही है नहीं। न कोई स्त्रीलिंग स्वर न व्यंजन! एक तरफ़ से देख लो अ,आ,उ,ऊ,ए,ऐ,ओ,औ अं,अ: सबके सब मर्दलिंग! इसके बाद कवर्ग, चवर्ग, तवर्ग,पवर्ग, टवर्ग, यवर्ग जिधर देखती हूं उधर पुल्लिंग ही पुल्लिंग दिखते हैं। हम तुम और ञ छोड़कर और कोई स्त्रीलिंग स्वर/व्यंजन दिखता ही नहीं। हम अपने काम से काम में लगे रहे। हालांकि किसी ने आजतक हम लोगों से कोई बदसलूकी नहीं की। किसी ने कोई ताना नहीं मारा। न रात बिरात किसी ने कोई छेड़खानी की लेकिन आज जब यह बात सोच रही हूं तो बड़ा अजीब सा लग रहा है।
छोटी ई ने भी कभी इस तरह नहीं सोचा था लेकिन उसके लिये भी यह नयी बात थी। बोली- अरे हां सच में! मैंने भी कभी ध्यान नहीं दिया इस तरफ़। कैसे ऐसा हुआ होगा! लेकिन क्या ऐसा हुआ होगा कि शुरु से ही हम लोग ऐसे ही रहें या फ़िर क्या पता खूब सारे स्त्रीलिंग शब्द रहे हों लेकिन उनको उसी तरह मिटा दिया गया हो जिस तरह आज लड़कियों की संख्या कम होती जा रही है। क्या पता शायद वर्णमाला का निर्धारण किसी मर्दानी सोच वाले ने लिया और स्त्रीलिंग ध्वनियों को अनारकली की तरह इतिहास में दफ़न हो कर दिया हो।
छोटी ई और बड़ी ई न जाने कित्ती देर इसी तरह की बातें करती रहीं। तमाम अक्षर उनके आगे अपने संस्कार के लिये खड़े थे। लेकिन वे अनमनी सी अपनी सोच में डूबी रहीं। काफ़ी देर बाद जब किसी ने उनको टोका तो वे फ़िर अनमनेपन से उबर कर काम में जुट गयीं। देखते-देखते उन्होंने ढेर सारे शब्दों का संस्कार कर डाला। दीदी, दिदिया, बीबी, मुन्नी, लल्ली, मुनिया, बिटिया, भतीजी, रानी ,नानी जैसे न जाने कित्ते स्त्रीलिंग शब्दों का निर्माण कर डाला। सारे के सारे स्त्रीलिंग शब्दों का निर्माण करके शायद वे वर्णमाला में अपने अल्पमत होने की कमी पूरी कर रहीं थीं।
अब छोटी ई और बड़ी ई आपस में लड़-झगड़ नहीं रहीं थीं। एक-दूसरे के कन्धे पर सर रखे मुस्करा रहीं थीं। खिलखिला रहीं थीं।