अम्मा धूप हुई तो आंचल बन कर कोने-कोने छाई अम्मा,
सारे घर का शोर-शराबा, सूनापन तनहाई अम्मा.
सारे रिश्ते- जेठ दोपहरी, गर्म-हवा, आतिश, अंगारे,
झरना, दरिया, झील, समंदर, भीनी-सी पुरवाई अम्मा.
उसने ख़ुदको खोकर मुझमें एक नया आकार लिया है,
धरती, अंबर, आग, हवा, जल जैसी ही सच्चाई अम्मा.
घर में झीने रिश्ते मैंने लाखों बार उधड़ते देखे,
चुपके-चुपके कर देती है, जाने कब तुरपाई अम्मा.
बाबूजी गुज़रे आपस मैं सब चीज़ें तक़्सीम हुईं, तब-
मैं घर में सबसे छोटा था, मेरे हिस्से आई अम्मा.
***
बाबूजी
घर की बुनियादें दीवारें बामों दर थे बाबूजी,
सबको बांधे रखने वाला खास हुनर थे बाबूजी.
तीन मुहल्लों में उन जैसी क़द-काठी का कोई न था,
अच्छे-खासे, ऊँचे-पूरे, क़द्दावर थे बाबूजी.
अब तो उस सूने माथे पर कोरेपन की चादर है,
अम्माजी की सारी सजधज, सब ज़ेवर थे बाबूजी.
भीतर से ख़ालिस जज़्बाती, और ऊपर से ठेठ पिता,
अलग, अनूठा, अनबूझा-सा, इक तेवर थे बाबूजी.
कभी बड़ा-सा हाथ खर्च थे, कभी हथेली की सूजन,
मेरे मन का आधा साहस, आधा डर थे बाबूजी.
***
मैंने देखा है
धड़कते, सांस लेते, रुकते-चलते मैंने देखा है,
कोई तो है, जिसे अपने में पलते मैंने देखा है.
तुम्हारे ख़ून से मेरी रगों में ख़्वाब रौशन हैं,
तुम्हारी आदतों में ख़ुद को ढलते मैंने देखा है.
न जाने कौन है जो ख़्वाब में आवाज़ देता है,
ख़ुद अपने आप को नींदों में चलते, मैंने देखा है.
मेरी ख़ामोशियों में तैरती हैं तेरी आवाज़ें,
तेरे सीने में अपना दिल मचलते, मैंने देखा है.
मुझे मालूम है तेरी दुआएं साथ चलती हैं,
सफ़र की मुश्किलों को हाथ मलते, मैंने देखा है.
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सखी पिया
सखी पिया को जो मैं न देखूं तो कैसे काटूं अंधेरी रतियां,
के' जिनमें उनकी ही रोशनी हो, कहीं से ला दो मुझे वो अंखियां.
दिलों की बातें, दिलों के अंदर, ज़रा-सी ज़िद से दबी हुई हैं,
वो सुनना चाहें ज़ुबां से सबकुछ, मैं करना चाहूं नज़र से बतियां.
ये इश्क़ क्या है, ये इश्क़ क्या है, ये इश्क़ क्या है, ये इश्क़ क्या है,
सुलगती सांसें, तरसती आंखें, मचलती रूहें, धड़कती छतियां.
उन्हीं की आंखें, उन्हीं का जादू, उन्हीं की हस्ती, उन्हीं की ख़ुशबू,
किसी भी धुन में रमाऊं जियरा, किसी दरस में पिरोलूं अंखियां.
मैं कैसे मानूं बरसते नैनो, के' तुमने देखा है पी को आते,
न काग बोले, न मोर नाचे, न कूकी कोयल, न चटखीं कलियां
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(अमीर ख़ुसरो को ख़िराजे-अक़ीदत जिनके मिसरे पर ये ग़ज़ल हुई)
हमन है इश्क़ मस्ताना
हमन है इश्क़ मस्ताना, हमन को होशियारी क्या,
गुज़ारी होशियारी से, जवानी फिर गुज़ारी क्या.
धुएं की उम्र कितनी है, घुमड़ना और खो जाना,
यही सच्चाई है प्यारे, हमारी क्या, तुम्हारी क्या.
उतर जाए है छाती में जिगरवा काट डाले है,
मुई तनहाई ऐसी है, छुरी, बरछी, कटारी क्या.
तुम्हारे अज़्म की ख़ुशबू लहू के साथ बहती है,
अना ये ख़ानदानी है, उतर जाए ख़ुमारी क्या.
हमन कबिरा की जूती हैं, उन्हीं का क़र्ज़ भारी है,
चुकाए से जो चुक जाए, वो क़र्ज़ा क्या उधारी क्या.
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(कबीर को ख़िराजे-अक़ीदत जिनके मिसरे पर ये ग़ज़ल हुई)