राष्ट्रमंडल खेलों की आयोजन समिति के महासचिव ललित भनोत ने कहा था कि खेल गांव में गंदगी के बारे में विदेशियों की प्रतिक्रिया को लेकर शर्मिंदा होने जैसी कोई बात नहीं है। खेल गांव तो सर्वश्रेष्ठ है। अगर विदेशियों ने वहां गंदगी की शिकायत की है तो इसलिए कि पश्चिमी लोगों के लिए सफाई और 'हाइजीन' के मायने हमसे अलग हैं। जरा सोचिए, श्री भनोत के इस भोले बयान पर दुनिया में कितने ठहाके लगे होंगे? बिस्तर पर कुत्ते के पांवों के निशान और पान की पीकों से रंगा बाथरूम का वाश बेसिन क्या स्वच्छता के किन्हीं भी मापदंडों के अनुरूप है? बिल्कुल नहीं। राष्ट्रमंडल खेल महासंघ के सीईओ माइक हूपर ने बाद में उन्हें यह कहकर डपटा कि स्वच्छता का पैमाना पूरी दुनिया के लिए एक है, हर देश के लिए अलग पैमाना नहीं होता।
बहरहाल, थोड़ा गहराई से सोचकर देखिए कि क्या श्री भनोत ने गलत समय पर जो गलत बात कह दी वह वाकई गलत है? क्या हम भारतीय साफ−सफाई, हाईजीन, समय की पाबंदी, सार्वजनिक शिष्टाचार आदि में बहुत पीछे नहीं हैं? ललित भनोत अपनी पोजीशन और मौके का ख्याल किए बिना आम हिंदुस्तानी नागरिक की तरह बोल गए जो यह मानकर चलता है कि विदेशियों के लिए सर्वश्रेष्ठ व्यवस्था होनी चाहिए, हम हिंदुस्तानियों को तो सब चलता है! हममें से अधिकांश लोगों के लिए स्वच्छता और हाईजीन के दो अलग−अलग मानक हैं। एक वह, जो विदेशियों के लिए है और दूसरा, अपेक्षाकृत कमतर पैमाना जो हम अपने पर लागू करते हैं। अगर मौका राष्ट्रमंडल खेलों का नहीं बल्कि राष्ट्रीय खेलों का होता तो क्या कोई भी खिलाड़ी या अधिकारी बिस्तर पर पड़े निशानों और वाश बेसिन की गंदगी पर सवाल उठाता? बिल्कुल नहीं, क्योंकि हम भारतीय अपने दैनिक जीवन और व्यवहार में इस तरह के मुद्दों को वैसा महत्व देते ही नहीं, जैसा कि पश्चिमी लोग देते हैं। लेकिन इसे हमारी उदारता माना जाना चाहिए या अनभिज्ञता?
राष्ट्रमंडल खेलों के अनुभव ने हमें खेलकूद, राजनीति और मेजबानी के लिहाज से तो बहुत से सबक सिखाए ही हैं, अपनी बहुत सी सामाजिक−सांस्कृतिक कमियों को महसूस करने का भी मौका दिया है। हाईजीन के प्रति अनभिज्ञता, सार्वजनिक शिष्टाचार (मैनर्स) संबंधी कमियों, डेडलाइनों के प्रति बेपरवाही, सड़क पर अराजकता, नियमों का पालन करने में अनिच्छा, कामकाज में ढिलाई, 'चलता है' का नजरिया और ऐसी ही दर्जनों कमियां हममें से ज्यादातर लोगों की आदतों में शुमार हैं। पिछले दिनों दुनिया भर में इन कमियों के लिए हमारी खूब खिल्ली उड़ाई गई और बहुतों ने कहा कि भारत को इन खेलों की मेजबानी दी ही नहीं जानी चाहिए थी। हालांकि हमने समय पर सबकुछ संभाल लिया और हम राष्ट्रमंडल इतिहास के सबसे शानदार खेलों का आयोजन सफलतापूर्वक पूरा करने जा रहे हैं, लेकिन एक राष्ट्र के तौर पर हमें इस वैश्विक आलोचना को भूलना नहीं चाहिए। ऐसा नहीं कि हम आक्रामक हो जाएं और बयान देने वाले हर एक व्यक्ति से चुन−चुन कर बदला लें। इसके विपरीत हमें अपनी कमियों को समझने की जरूरत है। कितना अच्छा हो अगर हम इस छीछालेदर से कुछ सीखें और अपने आपको बदलने की कोशिश करें।
इनसे पिंड छुड़ाइए
अपने बेपरवाह तौर−तरीके भले ही हमें कितने भी सुविधाजनक क्यों न लगें, ये हमारे पिछड़ेपन की निशानियां भर हैं। विकसित भारत का निर्माण महज आर्थिक, सैनिक, वैज्ञानिक, तकनीकी, औद्योगिक और पेशेवर तरक्की से संभव नहीं है। हमारा समाज इस विकास का सबसे महत्वपूर्ण पहलू है। दुनिया की दूसरी सबसे तेज बढ़ती अर्थव्यवस्था होने के बावजूद पिछले दिनों आस्ट्रेलिया, न्यूजीलैंड, कनाडा और इंग्लैंड आदि देशों से आए बयानों में हमारे प्रति सम्मान का भाव नहीं था। वह इसलिए कि अर्थव्यवस्था के शानदार आंकड़ों के बावजूद सामाजिक आचरण के स्तर पर हम बहुत आगे नहीं बढ़े हैं। उस मोर्चे पर हमें तीसरी दुनिया के देशों− पाकिस्तान, बांग्लादेश, मालदीव, मिस्र, ईरान, नाईजीरिया आदि की श्रेणी में ही गिना जाता है। अपने सामाजिक जनजीवन में मौजूद कमियों और वर्जनाओं से मुक्ति पाए बिना हम आधुनिक भारत का निर्माण नहीं कर सकते। आइए, खुद अपने और अपने आसपास से पिछड़ेपन की उन तमाम निशानियों को निकाल फेंकें जो हमारे समाज की निराशाजनक अंतरराष्ट्रीय छवि के लिए जिम्मेदार हैं।
मुझे यह कहने के लिए माफ कीजिए कि हममें से ज्यादातर लोगों को स्वच्छता (हाईजीन) और सार्वजनिक शिष्टाचार (पब्लिक एटीकेट) के सही मायने नहीं मालूम। इसका अहसास तब तक नहीं होता, जब तक कि हम किसी विकसित राष्ट्र को न देखें। भारत में तो हममें से ज्यादातर लोग एक जैसे ही हैं! विदेशों पर एक नजर डालने की जरूरत है। हवाई अड्डों से लेकर सड़कों तक पर धूल और गंदगी का नामो−निशान तक नहीं। सड़कों पर थूकने, कूड़ा फेंकने, सड़कों के किनारे पेशाब करने, पार्कों में गंदगी फैलाने, सांस की बदबू और पसीने की गंध का ख्याल न करने, इमारतों पर पान−गुटके की चित्रकारी जैसी चीजें विकसित देशों में कहीं दिखाई नहीं देती। सड़क किनारे खुले में बिकते खाद्य पदार्थ, सार्वजनिक स्थानों पर खांसते−छींकते−डकारते और धूम्रपान करते लोग, ट्रेनों व बसों में जोर−जोर से बातें करते मोबाइलधारी, महिलाओं को लगातार घूरते और उनके लिए आरक्षित सीटों पर मजे से बैठे ढीठ इंसान भी भारत या तीसरी दुनिया के देशों में ही बहुतायत से दिखते हैं। ऐसा नहीं कि विकसित देशों की कोई सामाजिक कमियां नहीं हैं, लेकिन सवाल कमियां गिनाने का नहीं अपने देश और सामाजिक जीवन को बेहतर बनाने का है।
'सब चलता है'
जब राष्ट्रमंडल खेलों के कामकाज में देरी की सुर्खियां अखबारों में छाई हुई थीं, तब एक विदेशी कोच का बयान आया था कि निश्चिंत रहिए, भारत इन खेलों का शानदार आयोजन करेगा और उद्घाटन की तिथि आते−आते वे सब कुछ ठीक कर देंगे। भारत में कामकाज का यही स्टाइल है। दिल्ली की मुख्यमंत्री शीला दीक्षित ने भी इसी बात को कुछ यूं कहा कि जिस तरह बेटी की शादी की तैयारियां ही अंतिम समय तक चलती रहती हैं, उसी तरह इन तैयारियों में भी देरी भले ही हो जाए, काम अच्छा होगा। बात सटीक है, लेकिन अगर हमारी प्रकृति ही 'लेटलतीफ' की है तो क्या एक बढ़ते राष्ट्र के नाते यह चिंताजनक नहीं? जिन डेडलाइनों को हमने ही तय किया, उन्हें भी हम पूरा नहीं कर पाते और इसके लिए किसी तरह का अपराध−बोध भी महसूस नहीं करते। इसके लिए हम किसी प्रशंसा या गौरव के पात्र नहीं हैं। देरी के बहाने तलाशने की बजाए हमें प्रोफेशनल बनना पड़ेगा। यह सुनिश्चित करना होगा कि चाहे कुछ भी हो जाए, हर काम सही समय पर पूरा किया जाएगा। 'चलता है' का तरीका अब नहीं चलेगा।
एक बार मैं एक रेस्तरां में बैठा था। पास की बैंच पर एक विदेशी युवती बैठी थी जो किसी का इंतजार कर रही थी। करीब आधे घंटे बाद एक भारतीय युवा उद्यमी आया और सफाई देने लगा। वह युवती इस पूर्व−निश्चित व्यावसायिक बैठक से यह कहते हुए नाराज होकर चली गई कि 'यू इंडियन्स विल नेवर बी ऑन टाइम।' उस युवक को शर्म आई या नहीं, कह नहीं सकता। मुझे जरूर आई।
हाल ही में खबर आई है कि राष्ट्रमंडल खेलों के तरणताल के पानी में नहाने वाले करीब पचास खिलाडि़यों के पेट खराब हो गए हैं। खेलों की दुनिया में 'देहली बेली' (भारत आने पर पेट खराब होने की समस्या) पहले से ही कुख्यात है। हालांकि खेल प्रमुख माइक फेनेल ने उस पानी के दूषित न होने का प्रमाणपत्र दे दिया है लेकिन मेरा मन यह मानने को तैयार नहीं कि पानी वाकई स्वच्छता के पैमानों पर खरा उतरा होगा। हमारे यहां पानी की सफाई को लेकर जागरूकता ही कितनी है! टेलीविजन, रेडियो और अखबारों में धुआंधार प्रचार होने के बावजूद लोग अपने घरों में जमा पानी तक नहीं हटाते। डेंगू से लेकर चिकनगुनिया तक, ड्रॉप्सी से लेकर स्वाइन फ्लू तक और सार्स से लेकर प्लेग तक कितनी ही महामारियां हमारे यहां वार्षिक आधार पर होती हैं क्योंकि हम सफाई सुनिश्चित नहीं कर सकते।
बदलाव जरूरी है, मगर सिर्फ हाईजीन के मामले में ही नहीं। लाइनों में लगना हमें पसंद नहीं, सड़क पर लेन में चलना या लाल बत्ती का ख्याल रखना हमें रुचता नहीं। राह चलते भिखारियों की भीड़ हमें परेशान नहीं करती। खेल देखने के लिए टिकट खरीदने की बजाए पास का जुगाड़ करते हैं और अपने बच्चों की उम्र के श्रमिकों से काम करवाते हैं। हर बारिश में कितने लोग बिजली के तार जमीन पर गिरने से मर जाते हैं इसकी न हम नागरिकों को परवाह है और न अधिकारियों को। हैंडपंपों के खुले गड्ढों से लेकर खुले मेन होल तक में कितने बच्चे और बड़े गिरते और मरते हैं इसे हम टेलीविजन और अखबारों में देखकर अफसोस जता देते हैं मगर करते कुछ नहीं। कुछ दिन बाद फिर ऐसी घटना होती है और उसके बाद फिर। प्रिय पाठक, ऐसा जागरूक और विकसित समाजों में अमूमन नहीं होता। राष्ट्रमंडल खेलों के ठीक पहले हमें झटका देकर दुनिया ने याद दिलाया है कि हमें अपना घर ठीक करने की जरूरत है। आइए, जुट जाते हैं।