पिछले दिनों मैं आकाशवाणी पर आयोजित एक परिचर्चा में हिस्सा ले रहा था। एक अन्य प्रतिभागी, जो एक प्रख्यात हिंदी पत्रिका के संपादक और जाने−माने साहित्यकार हैं, ने कहा कि हिंदी को विश्व भाषा बनाने की बात करने वालों को यह सोचना चाहिए कि क्या हिंदी अंग्रेजी और फ्रेंच जैसी विश्व भाषाओं की तरह परिपक्व हो चुकी है? उनकी दलील थी कि हिंदी को विश्व भाषा बनाने के बारे में बाद में सोचें, पहले उसे अपने देश में ही भली तरह स्थापित करने में जुटें। उनका सवाल था− क्या हिंदी ने विश्व साहित्य को यथार्थवाद जैसा कोई वैचारिक आंदोलन दिया है जो कालजयी हो गया हो और जिसे समग्र विश्व ने अपना लिया हो? क्या हिंदी में ऐसी पुस्तकें लिखी गई हैं जो अंतरराष्ट्रीय स्तर पर चर्चित हुई हों और बेस्टसेलर्स में शुमार हों? ऐसी ही कुछ अन्य जोशीली दलीलें उन्होंने दीं। हिंदी के प्रति उनकी अगाध निष्ठा और उसके विकास में स्वयं उनके योगदान को पूरा सम्मान देते हुए भी मैं इस भाषा की क्षमताओं पर सवाल उठाने की प्रवृत्ति से सहमत नहीं हूं। हिंदी पर जरा सी भी चर्चा होती है तो ऐसे सवाल उठ ही जाते हैं। मसलन 'पच्चीस साल बाद हिंदी की संभावित स्थित' परि चर्चा के लिए आयोजित एक अन्य कार्यक्रम में एक प्रमुख हिंदी टेलीविजन चैनल के युवा कर्ताधर्ता का कहना था कि हम हिंदी की प्रशंसा तो खूब करते हैं लेकिन क्या इस भाषा ने इतने दशकों में एक भी नोबेल विजेता पैदा किया? क्या हिंदी की पुस्तकें उस तरह लाखों की संख्या में बिकती हैं जैसी कि अंग्रेजी की?
इन सभी प्रश्नों पर आपकी ही तरह मेरा भी उत्तर 'ना' में है। लेकिन मुझे नहीं लगता कि ये सब उपलब्धियां अर्जित न करने से हिंदी 'अक्षम' सिद्ध होती है। एक भाषा के तौर पर हिंदी विश्व की किसी भी अन्य भाषा से कमजोर नहीं है। शायद अधिकांश भाषाओं से बेहतर ही है। यदि उसका साहित्यिक विकास कुंद हो गया है या उसे 'पिछड़ेपन' के साथ जोड़ दिया गया है तो इसके लिए 'हिंदी' कहां जिम्मेदार है? जिम्मेदार हैं हम लोग, जो हिंदी की क्षमताओं का प्रयोग करने में नाकाम रहे हैं। जिम्मेदार हैं हमारी शिक्षण संस्थाएं जो हिंदी के प्रति गौरव का भाव पैदा करने में नाकाम रहीं। जिम्मेदार है हमारी सरकारें जिन्होंने उसे 'औपचारिकता' और 'मजबूरी की भाषा' बना दिया। जिम्मेदार हैं हम हिंदी भाषी जो हिंदी ही नहीं, किताबों और साहित्य से ही दूर होते चले जा रहे हैं।
हिंदी का क्या दोष
अपनी विकट स्थित किे लिए हिंदी कहां जिम्मेदार है? यदि वह सक्षम न होती तो महात्मा गांधी से लेकर सुभाष चंद्र बोस और भगत सिंह जैसे गैर−हिंदी भाषियों ने उसे माध्यम न बनाया होता। गुजराती भाषा−भाषी होने के बावजूद स्वामी दयानंद हिंदी में उपदेश न देते और उनकी 'सत्यार्थ प्रकाश' हिंदी में न लिखी जाती। कम्युनिस्टों से लेकर राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ और गांधीवादियों से लेकर ईसाई मिशनरियों तक ने हिंदी को अपनाया। इसलिए क्योंकि वह 'सक्षमता' की भाषा है। देश को जोड़ने वाली तो वह है ही।
क्या हिंदी में शब्दों का अभाव है? हिंदी समांतर कोष के निर्माता अरविंद कुमार ने हिंदी के सात−आठ लाख शब्दों का दस्तावेजीकरण किया है। क्या यह अपर्याप्त है? माना कि अंग्रेजी में अब दस लाख शब्द हो गए हैं। सान डियेगो आधारित ग्लोबल लैंग्वेज मॉनीटर के अनुसार वैश्विक भाषाएं मानी जाने वाली फ्रेंच में लगभग एक लाख, स्पैनिश में सवा दो लाख और रूसी में सवा लाख शब्द बताए जाते हैं। यह अलग बात है कि उत्कृष्ट साहित्य सृजन के लिए इनकी तुलना में बहुत कम शब्दों की जरूरत होती है। शेक्सपियर द्वारा इस्तेमाल किए गए शब्दों की संख्या ही कुल 24 हजार बताई जाती है। क्या सात−आठ लाख शब्दों से समृद्ध हिंदी किसी साहित्यकार को उत्कृष्ट साहित्य सृजन से रोकती है?
कोई कमी है तो वह हमारी है
हिंदी के पास बेहद सुपरिभाषित व्याकरण मौजूद है। देवनागरी लिपि विश्व की श्रेष्ठतम लिपियों में से एक है− बेहद वैज्ञानिक और ध्वन्यात्मक। प्रेरणा लेने के लिए उसकी बेहद समृद्ध साहित्यिक परंपरा है जो भारतेन्दु हरिश्चंद्र से लेकर प्रेमचंद से होते हुए राजेन्द्र यादव तक और तुलसी−सूर−मीरा से लेकर निराला−पंत−अज्ञेय से होते हुए केदारनाथ सिंह तक आती है। क्या हिंदी हमें अपनी भावनाओं को सही ढंग से अभिव्यक्त करने का मौका नहीं देती? क्या वह भावों, विचारों, अनुभवों और रचनात्मकता के संप्रेषण में कमजोर है? क्या उसके पास पर्याप्त मात्रा में पर्यायवाची शब्द, मुहावरे, कहावतें आदि नहीं हैं? क्या हिंदी बोलने, लिखने या समझने में किसी किस्म की समस्या है? हमारी भाषा, कम से कम साहित्य में, हमें ऐसा कुछ भी करने से नहीं रोकती जो अंग्रेजी, फ्रेंच या किसी अन्य भाषा में किया जा सकता है। यदि कहीं कोई कमी है तो वह हमारी है− हिंदी भाषियों की, हिंदी प्रेमियों की, हिंदी साहित्यकारों की, हिंदी शिक्षाविदों की।
हिंदी में कोई बड़ा वैचारिक आंदोलन खड़ा न होने या हिंदी के किसी साहित्यकार को नोबेल पुरस्कार न मिलने के लिए हिंदी जिम्मेदार नहीं है। शायद यह देश की सामाजिक−आर्थिक परिस्थितियों, हमारे यहां शिक्षा और जागरूकता की स्थित, हमिारे विश्वविद्यालयों में हिंदी चिंतन और विमर्श की परंपरा के अभाव और पाठकों में साहित्यिक अभिरुचि के अभाव का प्रतिफल है। हम अपने नाकारापन के लिए हिंदी भाषा को दोषी नहीं ठहरा सकते। हिंदी को बढ़ाइए क्योंकि वह आपकी−हमारी जिम्मेदारी है। तकनीकी, वैधानिक, कारोबारी, अकादमिक स्तरों पर उसे और समृद्ध कीजिए क्योंकि वह हमारी जिम्मेदारी है। अपने बच्चों को हिंदी में पढ़ाना शुरू कीजिए− न सिर्फ प्रारंभिक कक्षाओं में बल्कि अग्रिम कक्षाओं में भी। हिंदी में हर किस्म की पुस्तकें लिखिए− सिर्फ साहित्यिक ही नहीं, वैज्ञानिक भी और पाठ्यपुस्तकें भी। हिंदी सब कुछ कर सकती है यदि हम उसे ऐसा करने दें। लेकिन वह खुद अपने आपको नहीं बढ़ा सकती क्योंकि भाषा की शक्ति उसे बोलने वालों में ही निहित है।