आज़ादी के छह दशक बाद यह देखकर अफसोस होता है कि किसी की छोटी सी टिप्पणी, किसी का कोई भी भाषण या छोटी सी हरकत दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र की सरकार को आहत कर जाता है! क्या यह लोकतांत्रिक परिपक्वता की निशानी है? हालाँकि अभिव्यक्ति पर अंकुश लगाया जाना कोई नई बात नहीं है। अमेरिका और दूसरे पश्चिमी देशों में भी ऐसा होता रहा है और भारत में तो इमरजेंसी ने मिसाल ही कायम कर दी थी। हो सकता है कि किसी देश के सामने मौजूद विकट परिस्थितियों में अभिव्यक्ति की आजादी में गतिरोध आ जाए, लेकिन वैसा ‘हालात में बिगाड़ की पराकाष्ठा’ के समय ही हो सकता है।
भारत में ऐसा कोई विशेष कारण मौजूद नहीं है जिसकी वजह से फेसबुक, ट्विटर या ब्लॉग पर टिप्पणियाँ करने वाले युवक-युवतियों को देशद्रोह जैसे आरोप लगाकर गिरफ्तार कर लिया जाए। न ही वैसा कुछ हुआ है जिसके चलते फेसबुक, गूगल, याहू और ऐसी ही दूसरी वेबसाइटों को अपने यहाँ आम लोगों द्वारा डाली गई लाखों पेजों की सामग्री का हर पन्ना पहले पढ़ने के बाद अपलोड करने की मजबूरी हो। सोशल मीडिया की सेंसरशिप की कल्पना मात्र ही विनोदपूर्ण है। हालाँकि, वह एक अनौपचारिक मीडिया के स्वामी के तौर पर सोशल मीडिया का प्रयोग करने वालों के दायित्वों को कम नहीं करती।
सोशल मीडिया के बारे में बहुत से लोगों के बीच यह गलतफहमी है कि यह ईमेल की ही तरह उनका निजी संचार माध्यम है, जिसका इस्तेमाल वे अपने दोस्तों के संपर्क में रहने और उनके साथ संदेशों का आदान-प्रदान करने के लिए करते हैं। वास्तव में यह दो लोगों या कुछ लोगों के समूह के बीच सीमित सूचना माध्यम नहीं है क्योंकि अधिकांश लोग अपने संदेशों को किसी मित्र मात्र तक पहुँचने के लिए निर्देशित नहीं करते।
सोशल मीडिया पर पोस्ट किए जाने वाले ज्यादातर संदेश सार्वजनिक हैं और यही वजह है कि वह छोटा ही सही, अपने आप में एक समाचार माध्यम या विचार माध्यम के समान है। फिर सोशल मीडिया की सामग्री जिस तरह मुख्यधारा के मीडिया तक पहुँचती है वह उसे और शक्ति दे देता है और ऊपर से इंटर-एक्टिविटी की जो शक्ति इस माध्यम के पास है वह आपकी एक छोटी सी टिप्पणी को एक से दो और दो से चार में तब्दील करते हुए कई गुना ज्यादा प्रभावशाली बना देता है। यदि इस मंच का इस्तेमाल सकारात्मक कारण से किया गया हो तो वह रचनात्मक योगदान दे सकता है लेकिन दुरुपयोग किया जाए तो वह माहौल को प्रदूषित करने से लेकर अफवाहें फैलाने, समाज के अलग-अलग वर्गों के बीच वैमनस्य फैलाने, मानहानि का मंच बनने और अपराधी मानसिकता को आगे बढ़ाने का जरिया भी बन सकता है। अब यह हम उपयोक्ताओं पर निर्भर करता है कि तकनीक और लोकतंत्र की बदौलत मिली इस ताकत को किस तरह इस्तेमाल करते हैं।
दुर्भाग्य से इस मीडिया के दुरुपयोग की मिसालें भी खूब हैं। कश्मीर में लड़कियों के प्रगाश नामक बैंड के विरुद्ध यहाँ वहाँ दिखने वाली मानहानिकारक, अपमानजनक और अश्लील टिप्पणियों को ही लीजिए। किसी बददिमाग इंसान ने फेसबुक पर टिप्पणी की कि वह इन लड़कियों का वैसा ही हश्र करना चाहता है जैसा दिल्ली में सोलह दिसंबर को बलात्कार पीड़िता के साथ हुआ। जाहिर है, यह मात्र सोशल मीडिया का दुरुपयोग ही नहीं बल्कि कानून का उल्लंघन भी है और ऐसे मामलों में कानून अपना काम करने के लिए स्वतंत्र है। पूर्वोत्तर के लोगों के विरुद्ध कुछ महीने पहले बंगलुरु, मुंबई, हैदराबाद जैसे शहरों में जंगल की आग की तरह फैली खतरनाक फेसबुक टिप्पणियाँ करने वालों के विरुद्ध कार्रवाई जरूरी थी लेकिन मुंबई में बाल ठाकरे के निधन के बाद हुए बंद पर टिप्पणी करने वाली लड़कियों और पश्चिम बंगाल में मुख्यमंत्री ममता बनर्जी पर कार्टून बनाने वालों को कानून के दायरे में लाने का कौनसा आधार बनता था, सिवाय इसके कि हमारे राजनेता और प्रशासनिक-पुलिस अधिकारी तकनीकी माध्यमों से बेहद अनभिज्ञ हैं।
अभिव्यक्ति की आजादी के दायरे में क्या आता है और क्या नहीं, इसे तय करने के लिए कानूनी पोथियों से माथापच्ची करने की जरूरत नहीं है। जो बात ऑफलाइन दुनिया में नहीं कही जा सकती, उसकी इजाजत ऑनलाइन दुनिया में भी नहीं हो सकती। लेकिन जो बात सार्वजनिक रूप से कहने में कोई हर्ज नहीं है, उसे सोशल मीडिया पर भी डालने में हर्ज नहीं है। आप खुले आम किसी सार्वजनिक हस्ती के अश्लील चित्रों को अपने मोहल्ले में वितरित नहीं कर सकते, किसी को जान से मारने या बलात्कार की धमकी नहीं दे सकते, किसी की मानहानि नहीं कर सकते, देशद्रोह से भरी हुई टिप्पणियाँ नहीं कर सकते तो नहीं कर सकते। भले ही माध्यम कोई भी हो। थोड़े बहुत तकनीकी मुद्दों को छोड़कर 'विषय वस्तु' के मामले में कानून की पोजीशन में बहुत फर्क नहीं होना चाहिए। कोई अपराध सिर्फ इसलिए ज्यादा बड़ा नहीं माना जाना चाहिए कि उसे ऑनलाइन किया गया। लेकिन कोई अपराध इसलिए छूट भी नहीं जाना चाहिए कि उसे इंटरनेट पर अंजाम दिया गया, सार्वजनिक जीवन में नहीं।
सरकार में शामिल लोगों के ताजा बयानों से लगता है कि सरकार धीरे-धीरे इन बातों को सीखने की प्रक्रिया में है। सूचना और प्रसारण राज्य मंत्री मनीष तिवारी की यह स्वीकारोक्ति सुखद है कि सरकार आज भी सन साठ की मानसिकता में काम कर रही है और उसे नए तौर-तरीकों के बारे में समझबूझ विकसित करने की जरूरत है। अगर वह ऐसा नहीं करेगी तो अपना ही नुकसान करेगी। कांग्रेस में भी सोशल मीडिया के प्रति नई जागरूकता पैदा हुई है, खासकर राहुल गांधी, दिग्विजय सिंह, सैम पित्रोदा आदि की दिलचस्पी के कारण। उम्मीद करना चाहिए कि यह सरकार और सत्तारूढ़ तंत्र की ऑनलाइन उपस्थिति मात्र को ही मजबूत नहीं बनाएगा, उनमें इस माध्यम के प्रति ज्यादा समझबूझ भी पैदा करेगा और अधिक जिम्मेदार भी बनाएगा।